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एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटGetty Images/EPA/AFPविभिन्न सर्वेक्षण कंपनियों और न्यूज़ चैनल्स की ओर से कराए गए चुनाव स
इमेज कॉपीरइटGetty Images/EPA/AFP
विभिन्न सर्वेक्षण कंपनियों और न्यूज़ चैनल्स की ओर से कराए गए चुनाव सर्वेक्षणों में एनडीए सरकार की वापसी का रास्ता साफ़ दिखाया जा रहा है लेकिन विपक्षी पार्टियों के अलावा राजनीतिक विश्लेषकों को भी ये विश्लेषण वास्तविकता से परे नज़र आ रहे हैं.
जानकारों के मुताबिक़, पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश के ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों और लोकसभा चुनावों के सर्वेक्षण भी वास्तविकता से काफ़ी दूर रहे हैं इसलिए इस बार ये कितने सही होंगे, इस पर विश्वास करना मुश्किल है.
लखनऊ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के राजनीतिक संपादक सुभाष मिश्र कहते हैं कि ज़मीन पर जो भी रुझान देखने को मिले हैं उन्हें देखते हुए सीटों की ये संख्या क़त्तई वास्तविक नहीं लग रही है.
उनके मुताबिक़, “उत्तर प्रदेश में जिस तरीक़े की जातीय और क्षेत्रीय विविभता है, मतदान के तरीक़ों और रुझानों में जितनी विषमता है, उनके आधार पर इस तरह से सीटों का सही अनुमान लगाना बड़ा मुश्किल होता है. ज़्यादातर सर्वेक्षण बीजेपी के पक्ष में एकतरफ़ा नतीजा दिखा रहे हैं, जो संभव नहीं लगता है. जितने मैंने यूपी में ज़मीन पर देखा और समझा है, उसके अनुसार कह सकता हूं कि गठबंधन अच्छा करेगा.”
इमेज कॉपीरइटGetty Images'प्रायोजित होते हैं सर्वेक्षण'
हालांकि कुछ सर्वेक्षणों में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन को उत्तर प्रदेश में काफ़ी आगे दिखाया गया है लेकिन ज़्यादातर में या तो बीजेपी के साथ उसका कड़ा संघर्ष देखने को मिल रहा है या फिर बीजेपी को काफ़ी आगे दिखाया जा रहा है.
सुभाष मिश्र कहते हैं कि हाल ही में तीन राज्यों में जो चुनाव हुए थे, ज़्यादातर चुनावी सर्वेक्षण वहां भी सही नहीं निकले, इसलिए बहुत ज़्यादा भरोसा करना ठीक नहीं है.
यही नहीं, ज़्यादातर विश्लेषक ख़ुद चुनावी सर्वेक्षणों के बीच आ रही विविधता की वजह को भी इनकी प्रक्रिया और इनके परिणाम पर संदेह का कारण मानते हैं.
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वरिष्ठ पत्रकार अमिता वर्मा अब तक कई चुनावों को कवर कर चुकी हैं. वो कहती हैं, “चुनावी सर्वेक्षण शुरू में जो आते थे, वो सत्यता के काफ़ी क़रीब होते थे. उसकी वजह ये थी कि उनमें उन प्रक्रियाओं का काफ़ी हद तक पालन किया जाता था जो कि सेफ़ोलॉजी में अपनाई जाती हैं. अब यदि इनके परिणाम सही नहीं आ रहे हैं तो उसकी एक बड़ी वजह ये है कि ज़्यादातर सर्वेक्षण प्रायोजित होते हैं और ऐसी स्थिति में सही परिणाम आने की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए.”
अमिता वर्मा भी ये मानती हैं कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान उन्हें जो भी देखने को मिला है वो इन चुनावी सर्वेक्षणों में नहीं दिख रहा है.
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वो कहती हैं, “उत्तर प्रदेश में जिस तरह से सपा और बसपा के बीच वोट ट्रांसफ़र हुए हैं, उन्हें देखते हुए गठबंधन काफ़ी मज़बूत रहा है. हां, ये भी सही है कि बीजेपी को जिस तरह से काफ़ी बड़े नुक़सान की बात की जा रही थी, वैसा नहीं होगा. लेकिन एक्ज़िट पोल पर भरोसा करना थोड़ा मुश्किल हो रहा है.”
वहीं वरिष्ठ पत्रकार श्रवण शुक्ल यूपी में बीजेपी के पक्ष में माहौल को देखने के बावजूद चुनावी सर्वेक्षणों पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं.
उनका कहना हैं, “2017 के विधानसभा चुनाव को ही देख लीजिए. किसी ने नहीं कहा था कि बीजेपी इतने बड़े बहुमत से जीतेगी. हालांकि ज़मीन पर बीजेपी के पक्ष में काफ़ी माहौल था लेकिन चुनाव पूर्व सर्वेक्षण इतनी सीटें तब क्यों नहीं देख पाए. इन सर्वेक्षणों के अनुमान तमाम लोगों के व्यक्तिगत अनुमानों से ज़्यादा अलग नहीं दिखते हैं. दरअसल, इन सर्वेक्षणों में जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, वो ज़मीनी हक़ीक़त को नहीं पहचान पाती. उत्तर प्रदेश का मतदाता काफ़ी परिपक्व है. वो इतनी जल्दी अपने रुझान को किसी के सामने स्पष्ट नहीं कर देता. और इस बार के चुनाव में तो ये बात ख़ासतौर पर देखने को मिली हैं.”
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दरअसल, ज़मीनी स्तर पर चुनावी प्रक्रिया को कवर करने वाले ऐसे तमाम पत्रकार हैं जिनकी चुनाव परिणामों पर अपनी अलग-अलग राय है, लेकिन ये लोग भी चुनावी सर्वेक्षणों पर बहुत भरोसा नहीं कर पा रहे हैं.
ज़मीनी स्तर पर नहीं दिख रहा गठबंधन
लखनऊ में एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि बीजेपी गठबंधन से काफ़ी आगे रहेगी. लेकिन किस सर्वेक्षण के ज़्यादा क़रीब रहेगी, इस पर उन्होंने कुछ नहीं कहा.
श्रवण शुक्ल कहते हैं कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में ही कितना अंतर है, जो ये बताने के लिए पर्याप्त है कि किसी एक सर्वमान्य प्रक्रिया का पालन इसमें नहीं किया जाता है. श्रवण शुक्ल की मानें तो सपा-बसपा-गठबंधन जिस तरह से ऊपरी स्तर पर दिख रहा था, उस हिसाब से ज़मीन पर नहीं दिखा.
श्रवण शुक्ल साफ़ कहते हैं कि चुनावी सर्वेक्षणों के नतीजों को यूपी के संदर्भ में बिल्कुल नहीं माना जा सकता. उनके मुताबिक़, “ये पूरा खेल सिर्फ़ चैनलों की टीआरपी का है, इसके अलावा कुछ नहीं. 2007. 2012 और फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में जिस तरह से पूर्ण बहुमत वाली सरकारें बनी हैं, उसने सभी चुनावी सर्वेक्षणों को ख़ारिज किया है. यहां तक कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भी. ऐसे में मुझे नहीं लगता कि चुनावी सर्वेक्षणों के नतीजों पर बहुत भरोसा किया जाए.”
बहरहाल, सोशल मीडिया पर भी इन सर्वेक्षणों की जमकर चर्चा हो रही है और लोग अपनी तरह से मूल्यांकन कर रहे हैं. साथ में ये सलाह भी दी जा रही है कि वास्तविक परिणाम आने में अब दो दिन ही तो बचे हैं.
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