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एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटGetty Images/ Hindustan Timesसरकार के लिए अब सही मायनों में हिम्मत दिखाने का वक़्त आ गया
इमेज कॉपीरइटGetty Images/ Hindustan Times
सरकार के लिए अब सही मायनों में हिम्मत दिखाने का वक़्त आ गया है क्योंकि जीडीपी के ताज़ा आंकड़े बुरी तरह डरा रहे हैं.
कहा जाता है कि डर के आगे जीत है. लेकिन उस जीत तक पहुंचने के लिए ही हिम्मत की ज़रूरत होती है. 40 साल में पहली बार भारत मंदी की चपेट में जा रहा है.
अप्रैल से जून के बीच भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ने की जगह करीब 24 प्रतिशत कम हो गई है. आशंका है कि अगली तिमाही यानी जुलाई से सितंबर के बीच की ख़बर जब आम होगी तब भी यह गिरावट बढ़त में नहीं बदल पाएगी.
यानी 40 साल में पहली बार भारत आर्थिक मंदी की चपेट में जा चुका होगा. वह भी ऐसे समय पर जब भारत 'विश्वगुरु बनने की तैयारी' कर रहा था.
आज़ाद भारत के इतिहास में अर्थव्यवस्था इतने ख़राब हाल में कभी नहीं आई. हालांकि, इससे पहले भी सुस्ती या स्लोडाउन के झटके आए हैं लेकिन इस बार की बात एकदम अलग है.
इमेज कॉपीरइटGetty Images/ Hindustan Times1979 का संकट और उसके सबक़
इससे पहले जब भी देश आर्थिक संकट में फंसा तो उसके दो ही कारण होते थे- या तो बारिश न होना यानी मॉनसून कमज़ोर पड़ना या फेल हो जाना और दूसरा अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दामों में उछाल आना.
1947 में देश आज़ाद होने से लेकर 1980 तक ऐसे पांच मौक़े रहे हैं जब देश की अर्थव्यवस्था बढ़ने के बजाय घटी है. इनमें सबसे गंभीर झटका वित्तवर्ष 1979-80 में लगा था जब देश की जीडीपी 5.2 प्रतिशत गिरी थी.
इसकी वजह भी थी. एक तरफ़ भयानक सूखा था और दूसरी तरफ़ तेल के दामों में आग लगी हुई थी. दोनों ने मिलकर देश को विकट स्थिति में डाल दिया. महंगाई की दर 20 प्रतिशत पर पहुंच गई थी.
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याद रहे कि यह वही दौर था जब भारत की आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार तीन-साढ़े तीन परसेंट हुआ करती थी यानी दो साल से ज्यादा की बढ़त पर एक ही बार में पानी पड़ गया था.
यह वो वक्त था जब इंदिरा गांधी लोकसभा चुनाव में अपनी करारी हार के बाद दोबारा चुनाव जीतकर सत्ता में लौटी थीं और उनकी सरकार को आते ही अर्थव्यवस्था की इस गंभीर चुनौती का सामना करना पड़ा.
खेती और उससे जुड़े काम धंधों यानी फार्म सेक्टर में 10 प्रतिशत की गिरावट, आसमान छूते तेल के दाम और आयात के मुकाबले निर्यात कम होने से लगातार बढ़ता दबाव; इमर्जेंसी के बाद पहली बार सत्ता मैं लौटी इंदिरा गांधी की सरकार को ये मुसीबतें उपहार में मिली थीं.
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1979 तेल संकट के दौरान ख़राब हो गई थी भारत की हालत
आपदा को बनाया गया था 'अवसर'
हालांकि, उस सरकार ने इसके लिए जनता पार्टी की खिचड़ी सरकार को ज़िम्मेदार ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लेकिन साथ ही आपदा को अवसर में बदलने का भी इंतज़ाम किया. पहली बार देश से निर्यात बढ़ाने और आयात कम करने पर ज़ोर दिया गया.
आज़ाद भारत के तब तक के इतिहास का वो सबसे गंभीर आर्थिक संकट था और उस वक़्त नए नोट छापकर घाटा भर लेना सरकारों का आज़माया हुआ नुस्खा था.
लेकिन उस सरकार ने घाटा पूरा करने के इस तरीके पर कम निर्भर रहने का फ़ैसला किया और यह भी तय किया कि सीमेंट, स्टील, खाद, खाने के तेल और पेट्रोलियम जैसी चीज़ों के इंपोर्ट के भरोसे रहना देश के लिए ख़तरनाक हो सकता है, इन्हें देश में भी बनाने का इंतज़ाम करना ज़रूरी है.
हालांकि उसके बाद भी नोट छापकर घाटा पटाना जारी रहा, लेकिन इसे तरीके का इस्तेमाल कम करने की चिंता शुरू हो गई थी. फिर 1997 में तो सरकार ने बाकायदा रिज़र्व बैंक के साथ समझौता कर लिया कि अब नोट छापकर घाटा पूरा करने का काम नहीं किया जाएगा.
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90 के दशक की शुरुआत में देश को एक और गंभीर आर्थिक संकट से गुज़रना पड़ा लेकिन बात मंदी तक नहीं पहुंची थी. संकट ये खड़ा हुआ कि भारत के पास विदेशी मुद्रा की कमी पड़ गई थी.
उस समय भी खाड़ी युद्ध की वजह से तेल के दाम अचानक तेज़ी से बढ़े और हाल ये हुआ कि भारत के पास कुछ ही दिनों का तेल ख़रीदने लायक विदेशी मुद्रा बची. इसी स्थिति में चंद्रशेखर की सरकार ने देश का सोना बेचने और गिरवी रखने का कठोर फ़ैसला किया.
उसी साल चुनावों के दौरान राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस की सरकार आई और पीवी नरसिम्हा राव सरकार ने आर्थिक सुधारों का वो पूरा पैकेज लागू किया जिसे भारत की आर्थिक तरक्की की रफ्तार में तेज़ी के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है.
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पीवी नरसिम्हा राव
इस बार चुनौती गंभीर है
लेकिन वर्तमान स्थिति आज तक के सभी संकटों से अलग है क्योंकि तेल के दाम बहुत कम स्तर पर चल रहे हैं. मॉनसून पिछले कई साल से लगातार अच्छा रहा है और विदेशी मुद्रा भंडार लबालब भरा हुआ है. फिर देश की अर्थव्यवस्था के गर्त में जाने का क्या अर्थ है?
इसकी एक वजह तो कोरोना महामारी है और वो वजह सबसे बड़ी है, इसमें भी किसी को शक नहीं है. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अर्थव्यवस्था के मौजूदा हाल को 'एक्ट ऑफ गॉड' या दैवीय आपदा का नतीजा बताया है.
मगर कोरोना को तब ज़रूर 'एक्ट ऑफ गॉड' माना जा सकता है ,जब आप कतई तर्क के मूड में न हों. वरना यह सवाल तो बनता ही है कि कोरोना फैलने की खबर आने के बाद भी उसकी गंभीरता समझने और उससे मुक़ाबले के तरीके तलाशने में जो वक्त लगा, उसके लिए कौन सा गॉड ज़िम्मेदार है?
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वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण
और अगर आप कोरोना के संकट और उससे पैदा हुई सारी समस्याओं को 'ईश्वर का प्रकोप' मान भी लें तो इस बात का क्या जवाब है कि कोरोना का असर आने से पहले भी इस मुल्क की यानी सरकार की माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी।
पूर्व वित्तमंत्री चिदंबरम और बीजेपी सांसद सुब्रमण्यम स्वामी इस मामले पर क़रीब-क़रीब एकसाथ खड़े हैं. स्वामी ने तो एक्ट ऑफ़ गॉड पर सीधा सवाल पूछा- क्या जीडीपी ग्रोथ रेट 2015 के आठ परसेंट से लेकर इस साल जनवरी में 3.1% तक पहुंच जाना भी एक्ट ऑफ़ गॉड ही था?
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क्या है रास्ता?
साफ़ है कि संकट गहरा है. अर्थव्यवस्था पहले ही मुसीबत में थी और कोरोना ने उसे पूरी तरह बिठा दिया है. सरकार क्या करेगी यह तो आगे दिखेगा, लेकिन इतना साफ़ दिखने लगा है कि अभी तक जितने भी राहत या स्टिमुलस पैकेज आए हैं, उनका कोई बड़ा फ़ायदा नज़र नहीं आ रहा है.
आर्थिक संकट मुख्य रूप से दो जगह दिखता है. एक- मांग कैसे बढ़े और दूसरा- उद्योगों, व्यापारियों या सरकार की तऱफ से नए प्रोजेक्ट्स में नया निवेश कैसे शुरू हो. ये दोनों चीजें एक दूसरे से जुड़ी ही नहीं हैं, बल्कि एक दूसरे पर टिकी हुई भी हैं.
मांग नहीं होगी तो बिक्री नहीं होगी और बिक्री नहीं होगी तो कारखाना चलाने के लिए पैसे कहां से लाएंगे? और अगर उनके पास पैसा नहीं आया तो फिर वो अपने कामगारों को पैसा कहां से देंगे?
चारों तरफ यही हाल रहा तो नौकरियां जाएंगी, लोगों का वेतन कटेगा या ऐसा ही कोई और तरीक़ा आज़माया जाएगा.
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ऐसे में सरकार के पास बहुत से रास्ते तो हैं नहीं. लेकिन एक रास्ता जो कई विशेषज्ञ सुझा चुके हैं, वो यह है कि सरकार को कुछ समय सरकारी घाटे की फ़िक्र छोड़कर नोट छपवाने चाहिए और उन्हे लोगों की जेब तक पहुंचाने का इंतज़ाम करना भी ज़रूरी होगा.
तभी इकोनॉमी में नई जान फूंकी जा सकेगी. एक बार अर्थव्यवस्था चल पड़ी तो फिर ये नोट भी वापस हो सकते हैं.
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