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एब्स्ट्रैक्ट:इमेज कॉपीरइटAFP GETTYImage captionटेरीज़ा मे की पहली तस्वीर तीन साल पहले की है जब वे प्रधानमंत्री बन
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टेरीज़ा मे की पहली तस्वीर तीन साल पहले की है जब वे प्रधानमंत्री बनी थीं. दूसरी तस्वीर तीन साल बाद की है जब उन्होंने कुर्सी छोड़ने की घोषणा की.
जुलाई 2016 में डेविड कैमरन के इस्तीफ़े के बाद बिना किसी आम चुनाव के ब्रितानी प्रधानमंत्री बनीं कंजरवेटिव नेता टेरीज़ा मे ने शायद कभी ये सोचा भी नहीं होगा कि ब्रेग्ज़िट के मुद्दे पर कैमरों के सामने आंखों में आंसू लिए भरे गले के साथ उन्हें कुर्सी छोड़ने की घोषणा करनी पड़ेगी.
ब्रिटेन की दूसरी महिला प्रधानमंत्री टेरीज़ा मे को यूरोप के मुद्दे पर कंजरवेटिव पार्टी की अंदरुनी लड़ाई ने उसी तरह सत्ता से हटने पर मजबूर कर दिया, जिस तरह पहली महिला प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर को अपनी ही पार्टी के भीतर विद्रोह के सामने घुटने टेकने पड़े थे.
ब्रेग्ज़िट डील को लेकर वो कौन से हालात रहे जिनकी वजह से टेरीज़ा की इस तरह विदाई हो रही है? इस सवाल पर लंदन के स्कूल ऑफ़ ओरियंटल एंड अफ़्रीकन स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर सुबीर सिन्हा कहते हैं, ''ब्रिटेन में तीन साल पहले हुए जनमत संग्रह में सवाल ये पूछा गया था कि आप यूरोपीय संघ के सदस्य बने रहना चाहते हैं या यूरोपीय संघ से बाहर निकलना चाहते हैं. तब 52 प्रतिशत लोगों ने कहा था कि वो यूरोपीय संघ से बाहर निकलना चाहते हैं जबकि 48 प्रतिशत लोगों ने यूरोपीय संघ के पक्ष में वोट दिया था. ये नतीजे अप्रत्याशित थे. इस जनादेश को क़ानूनी जामा पहनाने के लिए पिछले तीन से बात अटकी हुई है.''
प्रोफ़ेसर सुबीर सिन्हा का मानना है कि यूरोपीय संघ छोड़ने के पक्ष में वोट देने वाले 'फ्रीडम ऑफ मूवमेंट' को बंद कराना चाहते थे ताकि यूरोप के बाकी देशों से लोग काम के लिए ब्रिटेन नहीं आ सकें. यूरोपीय संघ में होने की वजह से पूरे यूरोप में ब्रिटेन के आयात-निर्यात पर कहीं कोई रोकटोक नहीं है. लेकिन यूरोपीय संघ, ब्रिटेन को ये सुविधा नहीं देता कि वो अपनी मर्ज़ी से नियम चुन सके या ख़ारिज़ कर सके. कॉमन सिंगल मार्केट के लिए ब्रिटेन 'फ्रीडम ऑफ मूवमेंट' को मानने के लिए बाध्य है.
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टेरीज़ा मे पिछले-दो तीन साल से कई मोर्चों पर जूझ रही हैं. पहला मोर्चा है यूरोपीय संघ, जहां वो अपनी बात रखने जाती हैं तो जबाव मिलता है कि ब्रिटेन की बात मानी तो यूरोप के बाकी देश भी इसी तरह मनमर्ज़ी करना चाहेंगे. दूसरा मोर्चा लेबर पार्टी का है जिसने दो साल पहले हुए चुनाव में अपनी ज़मीन मज़बूत की है. तीसरा मोर्चा उनकी अपनी कंज़रवेटिव पार्टी ने खोल रखा था, यूरोपीय संघ की सदस्यता के संबंध में पार्टी में तीखे मतभेद हैं.
बक़ौल प्रोफ़ेसर सुबीर सिन्हा, ''तीन साल तक टेरीज़ा मे ने अपनी गाड़ी को किसी तरह आगे बढ़ाया, लेकिन वक्त ने उसे ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया जिसके आगे कोई रास्ता ही नहीं था, सिवाए इस्तीफ़ा देने के.''
ब्रेग्ज़िट का चक्रव्यूह
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टेरीज़ा मे ब्रितानी अख़बारों में
जानकार इस बात पर सहमत हैं कि ब्रेग्ज़िट एक चक्रव्यूह की तरह साबित हुआ है जिससे निकलने के लिए टेरीज़ा मे ने भरसक प्रयत्न किया, लेकिन वो निकल नहीं पाईं. वो राजनीतिक चक्रव्यूह अभी भी बना हुआ है.
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, ''एक तरफ वो कंज़रवेटिव हैं जो यूरोपीय संघ से किसी तरह का संबंध नहीं रखना चाहते, जो 'हार्ड ब्रेग्ज़िट' चाहते हैं. दूसरी तरफ वो कंजर्वेटिव हैं जो यूरोपीय संघ के साथ 'सॉफ्ट इंगेजमेंट' चाहते हैं. टेरीजा मे के पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री डेविड कैमरन जिन्होंने ये सब शुरू किया, उनका मकसद था कि जनमत संग्रह कराकर कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर जो बहस वर्षों से जारी है, उसे खत्म कर दिया जाए.''
डेविड कैमरन को पूरा भरोसा था कि ब्रिटेन के लोग, जनमत संग्रह में इस बात का समर्थन करेंगे कि ब्रिटेन को यूरोपीय संघ के साथ होना चाहिए. लेकिन नतीजे उल्टे आए और उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया. लेकिन कंजर्वेटिव्स की कलह बढ़ती गई और टेरीज़ा मे के पास विकल्प भी सीमित थे.
प्रोफेसर हर्ष पंत कहते हैं, ''टेरीज़ा मे एक तरफ कंजर्वेटिव पार्टी के साथ मोलभाव कर रही थीं, दूसरी तरफ वो लेबर को भी मना रही थीं. लेबर 'सॉफ्ट ब्रेग्जिट' चाहता है, कुछ कंजर्वेटिव भी यही चाहते हैं लेकिन पार्टी का बड़ा हिस्सा 'हार्ड ब्रेग्जिट' चाहता है. उसे लेकर टेरीज़ा मे ने एक फ्रेमवर्क बनाने की कोशिश की जो उन्हें 'बेस्ट पॉसिबल' डील लगा. ब्रिटेन को उससे बेहतर डील शायद ही मिलती.''
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ब्रिटेन में प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदार
''लेकिन जो कंजर्वेटिव 'हार्ड ब्रेग्जिट' चाहते थे, उस डील से संतुष्ट नहीं हुए. इस वजह से संसद में भी किसी तरह सहमति नहीं बन सकी. टेरीजा मे ने तीन बार प्रयास किया, लेकिन डील को संसद से पारित नहीं करा पाईं. अंतत उन्हें घोषणा करनी पड़ी कि मैं इस्तीफा दे रही हूं और जो मेरा उत्तराधिकारी होगा, वो इस डील को देखेगा. लेकिन अभी तक ये स्पष्ट नहीं है कि जो भी उनका उत्तराधिकारी होगा, क्या वो इस चक्रव्यूह को भेद पाएगा.''
क्या टेरीज़ा के इस्तीफ़े से ब्रेग्ज़िट पर गतिरोध ख़त्म हो जाएगा
टेरीज़ा मे के इस्तीफ़े की घोषणा के बाद भी सवाल ये बचा है कि ब्रिटेन को यूरोपीय संघ में रहना है या नहीं. यूरोपीय संघ के हालिया चुनाव के नतीजे के बाद विपक्षी लेबर पार्टी के नेताओं ने दोबारा जनमत-सर्वेक्षण की संभावना भी टटोली है.
यूरोपीय संघ का मामला पेंचीदा है. यूरोपीय संघ से ब्रिटेन जैसे सदस्य देशों को बहुत फ़ायदे मिलते हैं, लेकिन बड़ा मुद्दा सम्प्रभुता का है क्योंकि कई नीतिगत मामलों में यूरोपीय संघ अपने सदस्य देशों पर भारी पड़ता है.
टेरीज़ा मे के हटने से हुआ सिर्फ ये है कि जो तथाकथित सॉफ्ट-ब्रेग्ज़िट का विकल्प उन्होंने आगे बढ़ाने की कोशिश की थी, उस सॉफ्ट-ब्रेग्ज़िट के इर्दगिर्द जो राजनीति हो रही थी, वो भी ख़त्म हो गई है.
अब ये तय हो गया है कि 7 जून को टेरीज़ा मे प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ देंगी और जुलाई तक ब्रिटेन को नया प्रधानमंत्री मिल जाएगा. क्या नए प्रधानमंत्री के सामने भी वही चुनौतियां होंगी जो टेरीज़ा मे के सामने थीं और क्या नया प्रधानमंत्री उन चुनौतियों से पार पा सकेगा?
इस सवाल पर प्रोफ़ेसर सुबीर सिन्हा कहते हैं, ''वो चुनौतियां बरकरार रहेंगी, क्योंकि कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर ब्रेग्ज़िट के मुद्दे पर अभी तक कोई सहमति नहीं बनी है. कंजर्वेटिव पार्टी और ब्रिटेन दोनों के पास अधिक विकल्प भी नहीं हैं.''
प्रोफ़ेसर हर्ष पंत का मानना है कि टेरीज़ा के जाने से कुछ बदलेगा नहीं, क्योंकि टेरीजा मे एक फ्रेमवर्क, एक एग्रीमेंट की प्रतीक मात्र थीं.
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प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, ''जिस संदर्भ में ये परेशानी आगे भी जारी रहेगी, वो ये है कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ के साथ समझौते की कोशिश कर रहा है. समझौते की दूसरी कोशिश ब्रिटिश पॉलिटिक्स सिस्टम के भीतर हो रही है. यूरोपीय संघ के साथ जो बातचीत थी, वो तो खत्म हो गई. यूनियन एक मोहर लगा दी एग्रीमेंट पर, लेकिन हार्डलाइन कंजर्वेटिव इससे बेहतर डील चाहते हैं. वो इसके लिए जोर लगा रहे हैं. लेबर पार्टी दूसरी तरह की डील चाहती है. इससे भी अधिक लिबरल डील चाहती है. उनके बीच कोई सामंजस्य बना नहीं है. लेकिन उन्हें ये समझ नहीं आ रहा है कि यूरोपीय संघ इससे बेहतर डील नहीं देने वाला.
प्रोफेसर हर्ष पंत के मुताबिक, यूरोपीय संघ की अपनी समस्याएं चल रही हैं. अगर इस तरह का माहौल बनता है जिसमें ये समझा जाएगा कि यूरोपीय संघ कमजोर पड़ रहा है तो उससे यूरोपीय संघ से बाहर निकलने की कोशिश करने वाले तमाम देशों को बल मिलेगा. यूरोपीय संघ अब ब्रिटेन के प्रति कठोर रवैया अपनाने के मूड में है. परेशान है वो इस बात से कि ब्रिटेन अपने अंदरूनी हालात नहीं संभाल पा रहा है. ऐसे में जो भी टेरेजा मे का उत्तराधिकारी होगा, उसे भी दिक्कत होगी. अभी भी जो दावेदार हैं प्रधानमंत्री पद के लिए, वो अलग-अलग तरह की बात कर रहे हैं. जो भी नया पीएम होगा, उसके बस में नहीं होगा कि वो सबको साथ लेकर चल सके. इसलिए ब्रेग्ज़िट डील पर जारी परेशानी आगे भी बनी रहेगी.
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क्या ब्रेग्जिट ब्रिटेन के लिए गले की हड्डी बन गई है?
जानकार इस बात पर एक राय नज़र आते हैं कि ब्रेग्ज़िट, ब्रिटेन के गले की एक ऐसी हड्डी बन गई है जिसे ना निगलते बन रहा है ना उगलते. ब्रिटेन की घरेलू राजनीति में ये बात हो रही है कि यूरोपीय संघ के साथ ब्रिटेन के संबंध कैसे होने चाहिए, लेकिन इस पर लोगों में आमराय नहीं है.
प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, ''यही बात राजनीतिक दलों में भी नज़र आती है. इसकी वजह से होता ये है कि ब्रिटेन जब यूरोपीय संघ के साथ मोलभाव करता है तो उसका हाथ कमज़ोर नज़र आता है. घरेलू मोर्चे पर ब्रिटेन की कमजोरी की वजह से यूरोपीय संघ की मोलभाव की ताकत बढ़ जाती है. नतीजतन जिस मामले में ब्रिटेन यूरोपीय संघ से मोलभाव करना चाहता है, वो हो नहीं पा रहा है. धारणा ये बनी है कि यूरोपीय संघ अपने सदस्य देशों में लोकतंत्र को कमज़ोर कर देता है, बोरिस जॉनसन जैसे नेता उसे बल देते हैं.''
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''इसके अलावा, घरेलू मोर्चे पर भी सहमति नहीं बन पा रही है जिसकी वजह से राजनीतिक नेतृत्व ना तो अपने लोगों को राज़ी कर पा रहा है कि जो हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, ना कार्पोरेट सेक्टर को भरोसे में ले पा रहे हैं जो बहुत परेशान है. जो आर्थिक संकेतक हैं, बैंक हैं, वो ब्याज़ दरों को लेकर परेशान हैं. दिशा को लेकर भ्रम की स्थिति है जिससे ब्रिटेन की घरेलू राजनीति दिग्भ्रमित नज़र आती है. बीते चुनावों में नाइजल फराज की पार्टी ने अपनी जमीन मज़बूत की है. लिबरल डेमोक्रेट अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं. लोग बार बार संकेत दे रहे हैं कि लेबर और कंज़र्वेटिव पार्टियों का रवैया सही नहीं है. दिक्कत ये है कि यही लोग संसद के सदस्य है, उसी संसद से नतीजा निकलना है.''
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जानकार मानते हैं कि ब्रेग्ज़िट को लेकर अभी तक के नतीजे यही दिखाते हैं कि ये मिशन बहुत मुश्किल है. जानकार ये भी मानते हैं कि डेविड कैमरन ने जिस क़वायद की शुरुआत की, वो टेरीज़ा मे, उनकी कंज़र्वेटिव पार्टी और विपक्षी लेबर पार्टी पर भी भारी पड़ रही है.
प्रोफेसर हर्ष पंत के मुताबिक, ''लोकतंत्र में जनमत संग्रह बड़े महत्वपूर्ण होते हैं. डेविड कैमरन ने इसे गंभीरता से नहीं लिया, उन्होंने इस बात को नहीं समझा कि इसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे. उन्हें लगा कि कंजरवेटिव पार्टी में वर्षों से जारी इस जद्दोजेहद को एक झटके में खत्म कर दिया जाए. लेकिन उन्होंने समस्याओं का ऐसा पिटारा खोल दिया कि वो हर पार्टी में दिक्कत कर रहा है. कंजरवेटिव्स की तो कलई खुली ही, लेबर को देखिए, लेबर को इस समय कंजरवेटिव से कितना आगे होना चाहिए था, लेकिन वो हर चुनाव नहीं जीत पा रही. ब्रेग्जिट को लेकर उसके अंदर भी समस्याएं हैं. ब्रिटेन की राजनीति अब एक नए आयाम की ओर बढ़ रही है, पुराने तौर-तरीकों पर अब राजनीति नहीं हो पाएगी.''
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यही वजह है कि अब यहां तक कहा जा रहा है कि ब्रेग्ज़िट की प्रक्रिया कई स्तरों पर ब्रिटेन के लोकतंत्र की परीक्षा ले रही है. ये सवाल उठेंगे कि ब्रिटेन का जो लोकतंत्र है, क्या वो इस तरह की चुनौती से निपटने के लिए तैयार है. और ये सवाल पश्चिम के अधिकतर लोकतंत्रों के लिए भी है. यूरोप के अलग अलग हिस्सो में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है, ब्रिटेन में हम इसे ब्रेग्ज़िट का नाम देते हैं, लेकिन बाकी देशों में भी दक्षिणपंथी पार्टियां उभर रही हैं. डेमोक्रेसी से अलगाव बढ़ रहा है और लोकतंत्र की मूल भावना पर सवाल उठाए जा रहे हैं.
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